दो बहनें
शशांक नीरद को लक्ष्य करके साली से मज़ाक करता, "अब पुराना नाम बदलने का मौक़ा आ गया।"
"अंग्रेज़ी मत से?"
"नहीं विशुद्ध संस्कृत मत से।"
"जरा सुनूँ तो सही नया नाम।"
"विद्युत्-लता। नीरद को पसन्द होगा। लैबोरेटरी में इस चीज़ के साथ उसका परिचय हुआ है, इस बार घर में बँधी मिलेगी।"
मन ही मन कहता, 'सचमुच ही यह नाम इसे फबेगा।' जी के भीतर ही भीतर जैसे कोई कुरेद उठता: 'हाय रे, इतने बड़े घमंडी के हाथ में ऐसी लड़की पड़ेगी!'---कहना कठिन है कि किसके हाथों पड़ने से शशांक की रुचि को सन्तोष और सान्त्वना मिलती।
थोड़े ही दिनों में राजाराम की मृत्यु हो गई। ऊर्मि के भावी स्वत्वाधिकारी---नीरदनाथ–--ने एकाग्र मन से उसको नये सिरे से गढ़ने का भार सँभाला।
ऊर्मिमाला देखने में जितनी अच्छी है, दिखती उससे भी कहीं अच्छी है। उसके चंचल शरीर में मन की उज्ज्वलता झिलमिलाया करती है। उसकी उत्सुकता सब विषयों में है। सायंस में जितना उसका मन लगता है, साहित्य में उससे ज्यादा ही लगता है, कम नहीं। मैदान में फुटबाल का खेल देखने में उसका आग्रह असीम है। सिनेमा देखने को भी वह बुरा नहीं समझती। प्रेसिडेन्सी कालेज में विदेश से कोई फ़िज़िक्स का व्याख्याता आया है तो वह वहाँ भी हाज़िर है। रेडियो सुनने के लिये कान खड़े रखती है। ख़ूब संभव है, सुनकर कह उठे, छि:, लेकिन कौतूहल भी कम नहीं है। बारात के आगे आगे बजते हुए बाजों के साथ वर निकल जाता तो दौड़कर बरामदे में आ खड़ी होती। चिड़ियाख़ाने में बार-बार सैर करने जाती, आनन्द भी पाती, विशेषकर बंदरों के पिंजड़ों के पास खड़े होने में तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहता। पिता जब मछली पकड़ने जाते तो बंसी लेकर वह भी बग़ल में बैठ जाती। टेनिस खेलती,और बैड्मिंटन में तो उस्ताद थी। यह सब उसने अपने बड़े भैया से सीखा था। पतली तो यह संचारिणी लता के समान थी, हवा लगी नहीं कि झूम उठी। साज-सिंगार सहज और परिपाटीयुक्त। वह जानती है कि किस प्रकार साड़ी को इधर-उधर थोड़ा खींच-खाँचकर घुमा-फिराकर ढीला या चुस्त करके शरीर की शोभा बढ़ाई जा सकती है और फिर भी उसका रहस्य भेद नहीं किया जा सकता। गाना अच्छा नहीं जानती लेकिन सितार बजाती है। यह संगीत देखने की चीज़ है या सुनने की,कौन बताए! ऐसा लगता कि उसकी चंचल अँगुलियाँ कोलाहल कर रही हैं। उसे बोलने के विषय की कभी कमी नहीं होती, हँसने के लिये उचित कारण का इंतज़ार नहीं करना पड़ता। साथ देने की उसकी क्षमता अजस्त्र थी, जहाँ रहती वहाँ के अन्तराल को अकेली हो भर रखती। सिर्फ नीरद के पास वह कुछ और ही हो जाती है। मानों पालवाली नाव के लिये हवा की गति ही बंद हो गई हो और वह रस्सी के खिंचाव से नम्र मंथर गति से चलने लगी हो। सभी लोग कहते, ऊर्मि का स्वभाव उसके भाई के समान ही प्राण से परिपूर्ण है। ऊर्मि जानती है, उसके भाई ने ही उसके मन को मुक्ति दी है। हेमन्त कहा करता, 'हमारे घर अलग-अलग साँचों के समान होते हैं। मिट्टी के मनुष्य ढालना ही उनका काम है। तभी तो इतने दिनों से विदेशी बाजीगर इतनी सरलता से तेतीस करोड़ पुतलियों को नचाए जा रहा है।' वह कहता, 'जब समय आएगा तो मैं इस सामाजिक मूर्तिपूजा को तोड़ने के लिये कालापाहाड़-जैसा आचरण करूगा।' उसे समय नहीं मिला, लेकिन ऊर्मि के मन को वह ख़ूब सजीव बनाकर छोड़ गया ।